जीवन प्रवाह

सब जीवन प्रवाह में हो गए हो जब इस कदर मशगूल
कि विस्मृत कर डाला हो उन्होंने अन्य की जीवन धारा है अभी निरा प्रतिकूल

मैथिली की पशु प्रवृत्ति भी जब लगने लगे जीवन के अनुकूल
और
मानुष जन्म को ही तुमने जब कर डाला हो निर्मूल

भौतिकतावाद का समाहन जब आध्यात्म को करने लगा हो ज़रा स्थूल

और जीवन के जख्म को कुरेदता, स्याह गहरे पन्नो पर कुंडली मारे बैठा हो भुजंग सदृश जहरीला त्रिशूल

कस्तूरी मृग के फेर में छिन्न भिन्न हो रहे हो जब जीवन के सारे उसूल
और संजीवनी बूटी भी करने लगे जीवन का नाश समूल

तो स्मृत करना,याद रखना
आत्म बल भी तो है ज़रा अमूल्य
जिसने रचा है असंख्य असीमित सफलताओं का नैतिक मूल्य

और तब जाकर मनुष्य ने गढ़ी
असीमित संदेशों से गुथी किवदंतियां परिपूर्ण
फैलाई यश कीर्ति और महका डाला धरा के आंचल को सम्पूर्ण
धरा के आंचल को सम्पूर्ण

स्वरचित आभार संग
डॉ. वैभव🙏

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