कितनी अजीब सी रस्म है न?

कितनी अजीब सी रस्म है न? बेटियां जब शादी के पहले अपने मा बापके घर मे होती हैं तो माँ – बाप को मिलने वाले हर इन्विटेशन पर उनका उतना ही हक़ होता है ,जितना कि उनके भाइयों का l वो पूरे ठाठ बाठ के साथ ,उतने ही अधिकार के साथ उन कार्यक्रमो में शिरकत कर सकती हैं जितना कि उसके समतुल्य उनका भाई लेकिन समय का पहिया घूमते देर नही लगती और जैसे ही उनको परिणय सूत्र बंधन में आबद्ध कर दिया जाता है तो बड़ी चालाकी के साथ मायके को मिलने वाले हर इन्विटेशन पर माता पिता के प्रतिनिधित्व का हक़ केवल बेटे के पास बचा रह जाता है और वही लाडली जिसकी बचपन की किलकारियां अपने भाइयों संग माता पिता के आंगन में कभी उसी समभाव जोशो खरोश के साथ गुंजायमान होती थी ,परिणयसूत्र में आबद्धोपरांत माता पिता को निर्गत इन्विटेशन की नुमाइंदगी के हक़ की तो छोड़िए अपने ही मायके में बेटियां अब मेहमाननवाजी की शिकार हो जाती है और अपने वो सारे हक़ , स्वातंत्र्य , स्वेच्छा और खुद की आइडेंटिटी दो घरों के फेर में गवां जाती हैं और फिर जिसे आदर्श नारीवादी गुणों की श्रेणी में शामिल करके हमारे समाज के तथाकथित समतामूलक होने की बानगी पेश कर दी जाती है

Dr. Vaibhav

Reference: https://www.facebook.com/100013897126228/posts/1485932601879963/

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