कदमताल नही कर पा रहा हूँ शायद
लड़खड़ाता ही जा रहा हूँ शायद
दुनिया की दिखावटी रवायतों में
खुद को अकेला पा रहा हूँ शायद
मन कभी उदास भी तो हो सकता है न?
आख़िर इंसान ही तो हूँ न शायद
कदमताल करने की कोशिश कर तो रहा हूँ,पर
लड़खड़ाता ही जा रहा हूँ शायद
सब कुछ समेट लेने की फिराक में
जज़्बातों से हारता जा रहा हूँ शायद
ज़िन्दगी की उधेड़बुन में उलझ ही चुका हो जब ये कांची मन बरबस ही
तो अब अंजाम चाहे फिर कुछ भी हो शायद
सुना था ,आंधियो के गर्म थपेड़ों में , बारिश की सौंधी खुशबू भी तो होती है शायद
और जब अंतःमन के सागर मंथन में चल रहा हो विराट ज्वार की सुगबुगाहट
लेकिन तब,एक सुनहरी सुबह भी तो आएगी शायद
लगावों की गुत्थियां भी जब हर दिन उलझती जा रही हों शायद
तो खुद को उन मांझो से सुलझा पाना भी नामुमकिन हो रहा है शायद
कदमताल नही कर पा रहा हूँ शायद
कदमताल नही कर पा रहा हूँ शायद
स्वरचित आभार संग
डॉ. वैभव
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