ज़िन्दगी में आरोप प्रत्यारोप करना, अन्य व्यक्तियों पर दोष मढ़ना और फिर अपनी परिस्थितियों को कटघरे में खड़ा करके अपनी आंशिक असफलताओं के लिए अफसोस जताना बेहद दुर्बल कृत्य की श्रेणी में शामिल किया जाना चाहिए क्योकि जब कोई व्यक्ति अपने सपनो की सुनहरी चादर खुद ही बुनता है खयाली पुलाव भी खुद ही पकाता है सब्जबाग में विचरण भी खुद ही करता है और अर्थशास्त्र के अल्पाधिकारिक बाज़ार मॉडल (Oligopolistic market model) के चेम्बरलिन प्रत्यागम के अंतर्गत कार्यरत विभिन्न फर्मो द्वारा अपनायी जाने वाली दुस्साहसपूर्ण मान्यता(Heroic assumption) के अनुरूप (The decisions taken by a firm will not affect the others) समस्त पारस्परिक निर्भरताओ से विरत योजनाओ का जंजाल भी खुद ही गढ़ता है तो अंततः ये उत्तरदायित्व भी उसी का होना चाहिए कि अपनी शिथिलताओ और दुर्बलताओं पर अथक प्रयास के माध्यम से विजय प्राप्त करके अपनी सफलता को भी स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज करवाये न कि मुसीबतों से मुंह चुराए और जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने भी तो कहा है –
उत्तिष्ठत जागृत प्राप्य वरान्निबोधत
आशय है : उठो जागो और तब तक मत रुको जब तक कि अपने लक्ष्य को प्राप्त मत कर लो
Written By :Dr. Vaibhav Agrawal
बहुत अच्छा लेख …
Thank You sir